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स्वतंत्रता दिवस के झण्डा रोहण समारोह पर दक्षिण भारत की एक सम्भ्रांत कॉलोनी में आयोजित कार्यक्रम का उद्बोधन अंग्रेजी में सुनकर मन को बड़ा धक्का लगा। मैं सोंचने लगा कि क्या हमारी हिंदी या यहाँ की क्षेत्रीय भाषा इतनी सशक्त नहीं है कि कम से कम आज तो हम दासता की प्रतीक भाषा का प्रयोग न करें। ऐसे असहज क्षणों में कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं:
स्वतंत्रता दिवस के समारोह का अंग्रेजी में उद्बोधन
हमारी अभिव्यक्ति की दासता
खुद अपनी ज़ुबां से बयां करता है,
ऐसा लगता है के भारत से भागा अंग्रेज
अपनी भाषा के माध्यम से
आज भी हम पर शासन करता है,
हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के सम्पन्न होने बावज़ूद
राष्ट्रीय समारोहों में आज भी भारतीय
अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करता है,
हिंदी के उद्बोधन से लोग हमें अनपढ़ न समझ लें
इस भावना से हमारा मन
न जाने क्यूँ डरता है,
अंग्रेजी उद्बोधन को हम उच्च होने का
मापदण्ड मानते हैं,
हिंदी या क्षेत्रीय भाषी वक्ता को
स्वतंत्र भारत में आज भी हम
द्वितीय नागरिक के रूप में पहचानते हैं,
भाषा से गुलाम और बर्बाद हैं हम,
पर अभिव्यक्ति के लिए आज़ाद हैं हम।
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